Sunday, September 2, 2007

अनूप भार्गव जी ने डा. राही मासूम रज़ा साहब की एक मर्मस्पर्शी नज़्म अपने ब्लोग पर रखी



अनूप भार्गव जी ने डा. राही मासूम रज़ा साहब की एक मर्मस्पर्शी नज़्म अपने ब्लोग पर रखी : ~~~ इन शब्दोँ के साथ : ~~ " अभी राही मासूम रज़ा साहब के जन्म दिन पर पहले कुरबान अली साहब की खूबसूरत पोस्ट और उस के बाद युनुस भाई और मनीष के संस्मरण पढ कर रज़ा साहब की बचपन में पढी एक नज़्म याद आ गई । "

मुझे भी डा. राही मासूम रज़ा साहब से " महाभारत " टी.वी. सीरीज़ के निर्माण के दौरान मिलने का सौभाग्य मिला था. हम बच्चे उन्हेँ "चाचा जी " कहते थे. डा. साहब मेरे पापा जी को बहुत आदर व प्रेम देते थे. और ये भी कहा था कि," महाभारत की बीहड भूल भूलैया मेँ मैँ पँडित नरेन्द्र शर्मा की ऊँगली थामे , आगे बढता गया " ~
` हाँ "प्रणालिका मेँ जो "समय " का पात्र आया है वह डा. राही मासूम रज़ा जी की कल्पना से उपजा हुआ अविस्मरणीय पात्र है जो कभी तो ईश्वर की तरह सर्वज्ञ - सा लगता है तो कभी अपनी अँतरात्मा मेँ बसी सत्य की प्रतिध्वनि सा महसूस होता है .ये डा. साहब के के व्यक्तित्व के बेजोड हुन्नर, और उनके एक सशक्त साहित्यकार की जीत मानती हूँ मैँ !
3 साल तक श्री बी. आर. चोपडा जी और भाई रवि चोपडा जी की पूरी टीम के साथ पापा जी की meetings होतीँ रहीं और महाभारत मेँ क्या क्या शामिल किया जायेगा और क्या नहीँ इस का निर्णय लिया गया था.
पापा जी ने जोर दिया था कि, श्री कृष्ण के जन्म से , बाल लीलाएँ और फिर गोकुल वृँदावन, बृज के सारे प्रसँग भी दीखलाना जुरुरी है और फिर भगवद्` गीता का समावेश भी किया गया 
- परँतु, ये जो सारी रुपरेखा बन चुकी थी उस के बाद, ही मेरे पापाजी हम सभी को निराधार अवस्था मेँ छोड कर चल बसे ! :-(
तब डा. राही मासूम रज़ा जी मेरी अम्मा से मिलने घर आये और साँत्वना दी और घर के बडोँ की तरह पूछा था कि,
" अब आपके परिवार से कौन बच्चा हमारे साथ महाभारत के लिये काम करना चाहेगा ? "
इतनी आत्मीयता थी उनमेँ ! उसके बाद पापा जी की स्मरणाँजलि रुपी पुस्तक " शेष ~ अशेष " के लिये ये कविता डा. राही मासूम रज़ा सा'ब ने लिख कर दी - जिसे सुनिये चूँकि आज वे भी हमारे बीच अब स- शरीर नहीँ रहे ! :-(
" वह पान भरी मुस्कान "
वह पान भरी मुस्कान न जाने कहाँ गई ?
जो दफ्तर मेँ ,इक लाल गदेली कुर्सी पर,
धोती बाँधे, इक सभ्य सिल्क के कुर्ते पर,
मर्यादा की बँडी पहने,आराम से बैठा करती थी,
वह पान भरी मुस्कान तो उठकर चली गई !
पर दफ्तर मेँ,वो लाल गदेली कुर्सी अब तक रक्खी है,
जिस पर हर दिन,अब कोई न कोई, आकर बैठ जाता है
खुद मैँ भी अक्सर बैठा हूँ कुछ मुझ से बडे भी बैठे हैँ,
मुझसे छोटे भी बैठे हैँ पर मुझको ऐसा लगता है
वह कुरसी लगभग एक बरस से खाली है !




4 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत बढ़िया लगा इस कविता को पढ़कर...सच ही कह रही हैं आप...जिसे देखिये वो ही नहीं रहा...सब यादें बड़ी खूबसूरत हैं.

अनूप भार्गव said...

अपनी यादों को हमारे साथ बाँटनें के लिये धन्यवाद ।
महाभारत जैसे जटिल कहानी को एक सूत्र में बाँध कर समझानें का काम सरल नहीं था और रज़ा साहब नें इसे बेहद खूबसूरती के साथ कर दिखाया ।

सुनीता शानू said...

बेहतरीन पेशकश कृष्ण के फोटोग्राफ भी बहुत सुन्दर है...रजा साहब की याद भी ताज़ा हो गई...

शानू

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

समीर भाई, अनूप भाई व सुनीता जीं

आपकी टिप्पणीयों के लिए बहोत बहोत शुक्रगुजार हूँ -

स स्नेह,

-- लावन्या