Tuesday, February 3, 2009

तत्` त्वम्` असि

!! ॐ !!

एक समय की बात है जब भारत में श्वेतकेतु नामक युवक रहता था । उसके पिता उद्दालक थे। उन्होंने एक दिन प्रश्न किया, " क्या तुम्हे रहस्य ज्ञात है ? जिस प्रकार सुवर्ण के एक कण की पहचान से समस्त वस्तुएं जो सुवर्ण से बनी हों उनका ज्ञान हो जाता है भले ही नाम अलग हों, आकार या रूप रेखा अलग हों .... सुवर्ण फ़िर भी सुवर्ण ही रहता है। यही ज्ञान अन्य धातुओं के बारे में भी प्राप्त होता है। यही ज्ञान है ।

उद्दालक , अरुणा के पुत्र ने ऐसा प्रश्न अपने पुत्र श्वेतकेतु से किया।
उद्दालक : "पुत्र, जब हम निद्रा अवस्था में होते हैं तब हम
उस तत्त्व से जुड़ जाते हैं जो सभी का आधार है !
हम कहते हैं, अमुक व्यक्ति सो रहा है परन्तु उस समय वह व्यक्ति
उस परम तत्त्व के आधीन होता है ।
पालतू पक्षी हर दिशा में पंख फडफडा कर उड़ता है आख़िर थक कर,
पुन: अपने स्थान पर आ कर, बैठता है ।
ठीक इसी तरह, हमारा मन, हर दिशा में भाग लेने के पश्चात्
अपने जीवन रुपी ठिकाने पर आकर पुनः बैठ जाता है।
जीवन ही व्यक्ति का सत्य है।
मधुमखियाँ मध् बनाती हैं। विविध प्रकार के फूलों से वे मधु एकत्रित करतीं हैं जब उनका संचय होता है तब समस्त मधु मिल जाता है और एक रस हो जाता है। इस मधु में अलग अलग फूलों की सुगंध या स्वाद का पहचानना तब कठिन हो जाता है। बिल्कुल इसी प्रकार हर आत्मा जिसका वास व्यक्ति के भीतर सूक्ष्म रूप से रहता है, अंततः परम आत्मा में मिलकर , विलीन हो कर, एक रूप होते हैं ।
शेर , बाघ, भालू, कीट , पतंगा, मच्छर, भृँग, मनुष्य सभी जीव एक में समा जाते हैं !
किसी को इस ज्ञान का सत्य , विदित होता है, अन्यों को नहीं !
वही परमात्मा बीज रूप हैं बाकी सभी उसी के उपजाए विविध भाव हैं !
वही एक सत्य है -
वही आत्मा है -
हे पुत्र श्वेतकेतु, वही सत्य तुम स्वयं हो !
तत्` त्वम्` असि !
तद्पश्चात` उद्दालक ने अपने पुत्र श्वेतकेतु से कहा की वह एक बीज ले कर आए। सघन , हरे भरे , विशालतम पेड़ का बीज , खोज कर लाने का कहने पर, श्वेतकेतु ने , पितु आज्ञा का पालन किया और एक नन्हा बीज लेकर , सामने रखा।
उसे कहा गया,
" इस बीज को तोड़ो " ...
श्वेतकेतु ने आज्ञा का अनुसरण किया।
अब , उद्दालक ने श्वेतकेतु से प्रश्न किया,
" इस भग्न हुए बीज के भीतर, तुम्हे क्या दीखाई देता है, बताओ "
श्वेतकेतु ने, ध्यान से देखकर कहा,
" इसके भीतर , कुछ भी नही है पिताश्री ! "
उद्दालक ने समझाते हुए कहा,
" देख रहे हो पुत्र, जिस विशाल, हरे भरे घने पेड़ का जन्म जिस नन्हे से बीज से हुआ , उसके भीतर कुछ भी नही है जैसा तुम देख कर, स्वयं जांच कर बतला रहे हो, बिल्कुल उसी तरह, हमारी आत्मा भी इस नन्हे बीज की तरह , उसी परमात्मा का ही स्वरूप है, हम उसी से उत्पन्न हुए हैं, उसी का अंश हैं जो , अविनाशी, परम सत्य , आनंद घन , चित स्वरूप है ।

हे पुत्र श्वेतकेतु, तुम वही हो !
तत्` त्वम्` असि !!
( छंदोग्य उपनिषद से : ~~~ )

अनेक गुणों से युक्त परमात्मा को , मनुष्य अपनी श्रध्धा और विश्वास का निरूपण करने के लिए, उसे मन्दिर बना कर , विविध स्वरूप देकर , प्रतिष्ठित कर , पूजा कर , नमन करते हुए , स्वयं अपनी आत्मा की पहचान करने का प्रयास करता है।

निर्गुण तथा सगुण से परे ईश्वर का स्वरूप बिरले ही समझ पाते हैं। परम योगी, अवधूत या महा ज्ञानी विविध प्रयास करते हुए , पर ब्रह्म को समझने के प्रयास करते हैं जब के बहुत कम , इस अलौकिक ज्ञान को प्राप्त करते हैं


सिध्ध, बुध्ध , ग्यानी और भक्त , इस आत्मा की पहचान तथा परमात्मा को समझने की इस यात्रा में , जीवन पूर्ण करते हैं ....
सिर्फ़ एक ही कामना शेष रहती है जो है, मुक्ति का प्रयास !
- लावण्या

25 comments:

ताऊ रामपुरिया said...

उपनिषद के गूढ तत्व को बहुत ही सुन्दर शब्द चुन कर आपने लिखा है. आपका अनन्त आभार. उपनिषद एक सूखा तत्व है या कहें नीरस.

आपने इतने सुंदर चित्र लगा दिये हैं कि एक बार तो मनुष्य अवश्य आकर्षित हो कर पढेगा और यही आपके ब्लाग की विशेषता है.

रामराम.

संगीता पुरी said...

गूढ रहस्‍यों का बहुत सहज और सुंदर प्रस्‍तुतीकरण....

Vinay said...

मोक्ष बहुत बड़ी चीज़ है, रावण ने भी तो सीता-हरण इसीलिए किया था!

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति की है।आभार।

विष्णु बैरागी said...

आधी रात कोई एक बजे यह कहानी पढी। चिन्‍तन-मनन के लिए अब शेष रात कम पडेगी। अपने आप में झांकने के लिए विवश करने वरली इस सुन्‍दर बोध कथा के लिए आभार।

महावीर said...

छंदोग्य उपनिषद में उद्दालक और श्वेतकेतु के संवाद द्वारा 'तत् त्वम् असि' जैसे गूढ़ तत्व को बहुत ही सुंदर और रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है। साथ ही संबंधित चित्रों से रोचकता अंत तक बनी रही है। अंत में संक्षिप्त में 'मुक्ति का प्रयास' को इस लेख में देकर एक उत्सुकता, एक जिज्ञासा पैदा कर दी है, अनेक प्रश्न सामने आजाते हैं कि 'मुक्ति' से क्या अभिप्राय है आदि। एक सुंदर और विचारात्मक विषय है जिसे आप अगली पोस्ट में इसे बढ़ा सकती हो। पाठकों के लिए केवल ज्ञानवर्द्धक ही नहीं, अपितु उनके अपने विचारों का भी टिप्पणी द्वारा प्रकट करने का अवसर मिलेगा।

राज भाटिय़ा said...

लावण्यम् जी आप ने अपने लेख मै इतना ग्याण दिया ओर साथ मै सुण्दर सुंदर चित्र, ओर उस गहरी बातो को बहुत सहज ढंग से समझाया.
धन्यवाद

Udan Tashtari said...

सुन्दर चित्र, सुन्दर प्रस्तुति..आभार.

विवेक सिंह said...

अत्यंत सुन्दर प्रस्तुतिकरण !

Alpana Verma said...

सुंदर चित्र हैं और आज के संदेश भी बहुत अच्छे लगे...मधु के माध्यम से आत्मा परमात्मा का विलय समझाना बहुत ही अद्भुत लगा.

Smart Indian said...

लावण्या जी, यह प्रस्तुति बहुत ही सुंदर रही. इस तरह की और भी पोस्ट लिखिए तो बहुत अच्छा हो. धन्यवाद!

कुश said...

इस पोस्ट को सेव कर लिया है.. बहुत बहुत आभार आपका..

Science Bloggers Association said...

गूढ तत्वों का मार्मिक विश्लेषण पढ कर प्रसन्नता हुई।

डॉ .अनुराग said...

निसंदेह संदेश महत्वपूर्ण है....ओर इसे बार बार स्मरण करना चाहिए ..

पारुल "पुखराज" said...

ऐसी सुन्दर पोस्ट और भी आनी चाहिए दी…आभार

उन्मुक्ति said...

आज के भटकाव वाले माहौल में आपकी यह पोस्ट सचमुच इनटरनेट का प्रयोग करने वालों को जीवन की सही दिशा दिखा सकती है । भारतीय संस्कृति के अमूल्य रत्नों को प्रभावशाली ढंग से सामने लाने के लिए आपका शत शत आभार । आपकी सकारात्मक सोच व भारतीय संस्कृति का प्रभाव जल्द ही समाज में भी देखने को मिलेगा । शुभकामना सहित आपकी अगली पोस्ट का इंतजार रहेगा ।

mehek said...

sach itanisundar gyanvardhan krati oat aur sundar chitra,last tak padhte padhte laga ye kabhi khatam na ho,bas padhte jaye,sundar.

Abhishek Ojha said...

उपनिषद् के सुंदर ज्ञान को प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद.

mamta said...

जैसे-जैसे आपकी पोस्ट को पढ़ते गए एक अजीब सी अनुभूति होती गई । आपके लिखे हर शब्द मन मे शान्ति उत्पन्न करते है । और ज्ञान भी बढाते है ।
शुक्रिया इस सुंदर प्रस्तुति के लिए ।

रंजना said...

अनेक गुणों से युक्त परमात्मा को , मनुष्य अपनी श्रध्धा और विश्वास का निरूपण करने के लिए, उसे मन्दिर बना कर , विविध स्वरूप देकर , प्रतिष्ठित कर , पूजा कर , नमन करते हुए , स्वयं अपनी आत्मा की पहचान करने का प्रयास करता है।

पूर्णतः सत्य....

आपका कोटिशः आभार इन पवित्र और सुंदर बातों को पढने गुनने का अवसर देने हेतु.

Gyan Dutt Pandey said...

प्रतीक्षा रहेगी अगली पोसट की।बहुत सुन्दर!

रविकांत पाण्डेय said...

"सिर्फ़ एक ही कामना शेष रहती है जो है, मुक्ति का प्रयास !" यही आखिरी बाधा भी है। प्रयास सादि और सांत होता है अर्थात इसका आरंभ और अंत होता है जबकि तत्व अनादि और अनंत है। सादि और सांत प्रक्रिया, अनादि और अनंत तक कैसे पहुँचा सकती है? जिस दिन यह समझ विकसित होती है "तत्त्वमसि" का रहस्य ज्ञात होता है।

Arvind Mishra said...

आपके साथ यह उपनिषद प्रशान्तिदायक रहा -शुक्रिया !

nidhi said...

jis vishay ko main ab tk neeras samjhti rhi ,aaj khoobsurati se saamne hai

अमिताभ श्रीवास्तव said...

mene bachpan se sikha he...achcha pado....? kya achcha? kis tarah ka achcha? is duvidha ne kai varsh vyay kar diye..maga bahut bahut pad aour likh kar ye jaana jivan ko pado..bs mujhe jivan aour uske sandarbh me padna bhaane laga..
blog ki dunia me aakar dekhaa ki ynha bhi bikhra pada he jivan..
aapke blog par aour jyada maza ye aayaa ki mere vishaya ki chize mujhe mil gai..
dhanyavaad.